ज़िंदगी ढलती जा रही है
एक चुप सब निगलती जा रही है,
ज़िंदगी बे-सबब ढलती जा रही है।
कोई बोलता भी नहीं, मैं भी नहीं,
ये उम्र रेत-सी फिसलती जा रही है।
क्या हुआ, कोई सोचता भी नहीं,
सोच बहस में सिमटती जा रही है।
जवाब सब हैं, मगर ख़ामोशी की तरह,
हिम्मत तो है, पर बिखरती जा रही है।
ख़्वाब सारे ही छिन गए हैं अब,
आँखें बेवजह तरसती जा रही है।
हर ज़ुबां इल्ज़ाम तराशती जा रही है,
ख़ुद-बनाई ख़ामोशी बढ़ती जा रही है।
मज़हबी महफ़िलें बढ़ती जा रही हैं,
हक़ की लौ मगर बुझती जा रही है।
हर ख़ुत्बे की दुआ में सवाब की फ़िक्र है,
पर अमल की ज़मीन सूखती जा रही है।
सदियों से वही तर्क-ओ-बयान जारी हैं,
पर हिम्मत-ए-ईमानी ढलती जा रही है।
एक डूबते आफ़ताब की मानिंद,
ज़मीर की लौ मंद होती जा रही है।
‘नेहाल’ रूह की तिश्नगी बढ़ती जा रही है,
हौसले-ए-इंसानियत की लौ घटती जा रही है।
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Prof. Nehal
Prof Nehaluddin Ahmad, LL.D. Professor of Law, Sultan Sharif Ali Islamic University (UNISSA), Brunei, email: ahmadnehal@yahoo.com



















