
असग़र मेहदी
फ़ासीवाद एक विश्वव्यापी समस्या है और वर्तमान में भारत में यह रुझान ख़तरे के स्तर से ऊपर की स्थिति में पहुँच गया है।इस विचारधारा ने बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में ज़ोर पकड़ा और लगभग सभी देश किसी ना किसी रूप में इसकी चपेट में आये हैं, उदाहरण के तौर पर अमेरिका का 1924 का इमिग्रेशन ऐक्ट को लें जिसके द्वारा अश्वेतों, यहूदियों के प्रवेश पर अंकुश लगाने की व्यवस्था की कोशिश की गयी।
fascism शब्द से शायद ही कोई अपरिचित हो, यह शब्द मूलतः लैटिन शब्द Fascio से उत्पन्न हुआ है, जिसका अर्थ है “डंडों का समूह”, जिसे रोमन साम्राज्य में सिवल अधिकारी सड़क पर हाथ में लेकर चलते थे और कोई क़ानून का उल्लंघन करता दिखाई देता तो उसे सज़ा देते थे।
यदि राजनीतिशास्त्र के पर्सेप्शन में बात करें तो फ़ासीवाद एक प्रकार का रैडिकल तानाशाही राष्ट्रवाद है, वैसे इसकी परिभाषा को लेकर बहुत मतभेद हैं। काफ़ी समय के बाद कॉम्युनिस्ट इंटर्नैशनल की 13 वीं विस्तारित कार्यकारिणी की बैठक में इसे सटीक रूप से परिभाषित किया गया कि फ़ासीवाद वित्तीय पूँजी के घोर प्रतिक्रियावादी, घोर अंध राष्ट्रवादी और घोर साम्राज्यवादी तत्वों की खुली आतंकवादी तानाशाही है।
फ़ासीवाद जैसी विचारधारा के उदय में फ़ेड्रिक नीतशे के दर्शन “ईश्वर का अंत” को ज़िम्मेदार माना जाता है।उसका विचार था कि ईसाईयत ग़ुलामों का धर्म है और यह ग़ुलामाना सोच पैदा करती है इसलिये अब धर्म की आवश्यकता नहीं है। ईश्वर के स्थान पर उसने इच्छा-शक्ति का दर्शन पेश किया कि यही अच्छाई की धुरी है। जो मनुष्य को शक्तिशाली बनाये वह अच्छाई है जो कमज़ोर बनाये वह बुराई है।
नीतशे ने ताक़त और कमज़ोर का नज़रिया ही बदल दिया, हर ताक़तवर चीज़ अच्छी और हर कमज़ोर चीज़ बुरी और बेकार। अब यहूदी, रोमा, महिलायें जैसे बहुत कुछ बुराई मान ली गयीं। रिचर्ड गंबर्गर ने नाज़ी इतिहास का विश्लेषण करते हुए बहुत ही रोचक बात कही है कि सत्ता प्राप्त होते ही नाज़ी जर्मनी में सत्ताधारी वर्ग भ्रष्टाचार के निम्नतम स्तर पर था, किंतु राष्ट्रवाद में डूबी जनता इस सत्य से इंकार ही नहीं कर रही थी बल्कि नेताओं की सादगी के गुण-गान करती नज़र आ रही थी।
पहले इस बात को समझ लें कि वर्तमान सत्ता का रूप फ़ासीवादी है और फ़ासीवादी राजनीति का ही शासन है। इस प्रकार की राजनीति में राष्ट्र की परिभाषा ही अलग होती है जो एक मिथिकीय अतीत के निर्माण पर निर्भर करती है, इस मिथिकिय अतीत का सारा दार ओ मदार धार्मिक, नस्ली और सांस्कृतिक शुद्धता पर होता है, जिसमें विशेष राष्ट्र के नागरिक दूसरों पर राज करते थे, इसके साथ nostalgia और विशेष आदर्शों के मध्य एक समन्वय तलाशा जाता है।
1922 में मुस्सोलिनी का भाषण का अंश देखिए,
We have created our myth. The myth is a faith, a passion. It is not necessary for it to be a reality… Our myth is the nation, our myth is the greatness of the nation! And to this myth, this greatness, which we want to translate into a total reality, we subordinate everything.
इस Mythical Past के साथ आवश्यक है कि हम’ और ‘वह’ का नज़रिया पेश किया जाये ताकि एक Victimhood की भावना पैदा कराई जा सके कि अमुक धर्म/संस्कृति/नस्ल ने मिथिकीय अतीत के परवाह को रोका। फ़ाशिस्ट राजनीति संस्कृति की बर्बादी के क़िस्से बंद कमरे में तैयार करती है और ‘शुद्धता’ की विचारधारा के क़ायल संस्थाओं से इसका प्रचार किया जाता है। इस प्रकार की राजनीति में शासक और राष्ट्र सामान रूप से स्थापित हो जाते हैं। शासक की आलोचना राष्ट्र की आलोचना मान ली जाती है।
इस प्रकार की राजनीति के लिये अवश्यक है कि कुछ वर्गों को तलाश कर उनको dehumanize किया जाये, उसके इतिहास को अंधकार काल कहा जाये।अपनी तमाम कुरीतियाँ, जड़ताओं और अंधविश्वास के लिये सारा दोष उन वर्गों पर मढ़ दिया जाये।इस प्रक्रिया में झूठ का इतना प्रचार होता है कि वह सच दिखने लगता है, और systematically अमानवीय व्याहवर, बड़े पैमाने पर क़ैद करना और हत्या को justify करने की प्रक्रिया संस्था का रूप इख़्तियार कर लेती है।
अब 1930s में निर्मित इस विचारधारा के हाथ में सत्ता है, जो Fascist Ideology को मुख्य धारा में प्रवाहित करने की चेष्टा में सफल नज़र आ रही है।
वर्तमान दौर में किसी समूह के विरुद्ध नीतिगत राजनीति करना खुले तौर पर सम्भव नहीं है। फ़ासिस्ट शक्तियाँ सीधे तौर पर कुछ अलग तरह की रणनीति के तहत अपनी विचारधारा को आगे बढ़ाती हैं जिसमें प्रोपागैंडा की भूमिका महत्व पूर्ण होती है।इनकी कार्यशैली इस प्रकार की होती है कि लोकतंत्र की प्रहरी संस्थाएँ रणनीति को समझने में असमर्थ भले ही हों किंतु इनका मुख्य समर्थक समूह भली-भाँति “संदेश” को समझ लेता है।
एक उदाहरण से समझने की कोशिश करते हैं, फ़ासिस्ट विचारधारा से प्रेरित अमेरिका का कोई राजनैतिक नेता यदि “क़ानून और व्यवस्था” की गिरावट और उसके सुदृढ़ीकरण की बात करे तो उसके समर्थक तक यह संदेश पहुँच जाता है कि “काले” लोगों के कथित उद्दंड व्यवहार की बात हो रही है। इसी प्रकार ट्रम्प की अमेरिकियों के रोज़गार के अवसरों के प्रति चिंता व्यक्त करने पर समर्थक समझ लेते हैं कि प्रवासियों द्वारा रोज़गार के छीने जाने की बात हो रही है।
व्यापक रूप से फ़ासिस्ट आंदोलन का मुख्य मुद्दा भ्रष्टाचार रहा है, जिसके द्वारा फ़ासिस्ट विचारधारा अपने प्रचार संसाधनों से यह राय स्थापित करने की चेष्टा करती है कि मुख्य धारा कि राजनीति भ्रष्टाचार में डूबी है।छद्म फ़ासिस्ट संस्थाएँ इस कार्य में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है, इस संदर्भ में अन्ना आंदोलन एक केस स्टडी है। रिचर्ड गंबर्गर ने नाज़ी इतिहास का विश्लेषण करते हुए बहुत ही रोचक बात कही है कि सत्ता प्राप्त होते ही नाज़ी जर्मनी में सत्ताधारी वर्ग भ्रष्टाचार के निम्नतम स्तर पर था, किंतु राष्ट्रवाद में डूबी जनता इस सत्य से इंकार ही नहीं कर रही थी बल्कि नेताओं की सादगी के गुण-गान करती नज़र आ रही थी।

Stop fascism message on concrete wall
फ़ासिस्ट शासन में “भ्रष्ट” को आर्थिक मामलों के संदर्भ में प्रस्तुत नहीं किया जा जाता बल्कि यह संदेश दिया जाता है कि देश की संस्कृति/धर्म/नस्ल/खान-पान/परम्पराओं को भ्रष्ट किया जा रहा है। यह प्रचार इतना शक्तिशाली होता है कि विरोधी भी इन मामलों में सजगता बरतने लगते हैं।फ़ेरोज़ गांधी का धर्म, सोनिया गांधी की इटली राष्ट्रीयता पर अनर्गल बहस और राहुल गांधी का जनेऊ प्रकरण को फ़ासिस्ट विचारधारा के अनुसार भ्रष्ट की परिभाषा के संदर्भ में समझना कोई मुश्किल बात नहीं है।आर्थिक भ्रष्टाचार फ़ासिस्ट विचारधारा के समर्थकों की दृष्टि में भ्रष्टाचार नहीं है बल्कि Chosen People का वह अधिकार है जिसे “भ्रष्ट” उपयोग कर रहे थे।
भारतीय संदर्भ में हम लॉरेन्स ब्रिट के 14 बिन्दुओं पर आधारित मानकों की दृष्टि से वर्तमान परिदृश्य का विश्लेषण करें तो स्थिति की गम्भीरता समझ में आती है।आज नियतिवाद से बाहर निकलना होगा और फ़्रान्स के 6 फ़रवरी 1934 की घटना से सबक़ लेते हुए एक व्यापक जन आंदोलन खड़ा करना होगा।