हिमांशु बाजपेई
मुजतबा हुसैन साहब ने जब कहा कि मेरा खाका (शब्द-चित्र, जिसमें किसी के व्यक्तित्व का सूक्ष्मता से वर्णन होता है) तुम लिखो तो मैने सोचा कि इससे बड़ी सआदत (सौभाग्य) क्या होगी कि उर्दू का सबसे बड़ा ख़ाकानिगार, मेरा महबूब ख़ाकानिगार, मुझसे कह रहा है कि मैं उसका ख़ाका लिखूं. जी में आया कि कहूं ज़रूर लिखूंगा. बल्कि लिखूंगा क्या, मैं तो पहले ही लिखकर ले आया हूं. लेकिन एन वक्त पर मेरे अज़ीज़ प्रमेश अग्रवाल के एक जुमले ने मुझसे ये बेअदबी होने से रोक ली. प्रमेश कहते हैं- ‘अच्छा फोटोग्राफर वो नहीं होता जो ख़राब फोटो नहीं खींचता, अच्छा फोटोग्राफर वो होता है जो अपनी ख़राब फोटो किसी को दिखाता नहीं.’ उनका ये जुमला मैं अपना कहकर इतने हज़ार लोगों को सुना चुका हूं कि
अब वो भी मानने लगे हैं कि शायद ये जुमला कभी मैने ही उनको सुनाया था… अपना हाफिज़ा (स्मृति) अच्छा और दूसरे का ख़राब होने का यही फायदा है. बहरहाल हमेशा की तरह प्रमेश ने इस बार भी मुझे बचा लिया और मैंने अपनी ख़राब फोटो यानी उनपर पर लिखा गया लेख उसी हुनरमंदी से जेब में दबाए रखा जिस तरह शिया कॉलेज के ज़माने में नकल की
पर्ची दबाया करता था. सुकून की एक सांस लेने के बाद मुजतबा साहब से सिर्फ इतना कहा कि मैं इस लायक नहीं हूं लेकिन कोशिश करूंगा. इस पर वो बोले- ‘तुम अच्छा लिखते हो. लाए नहीं कुछ ? दिखाओ ?’ अब मुझे एक बार फिर शिया कॉलेज याद आ गया. यूं लगा जैसे फ्लाइंग स्क्वायड वाला पूछ रहा हो- ‘पर्ची तो नहीं है’ ? मैंने कहा- ‘नही’. डर लग रहा था कहीं तलाशी न हो जाए. बहरहाल ऐसा कुछ नहीं हुआ और मैं बच निकला. मैने कहा कि जब मैं अगली बार आऊंगा तो उन्हे अपना लिखा कुछ ज़रूर सुनाऊंगा. लेकिन सुनने सुनाने के इस दौर में जो सानिहा (हादसा) आप पर गुज़रेगा उसके लिए मैं एडवांस में माज़रत चाहता हूं. इसी से याद आया- कभी भारत भूषण पंत साहब से मैने एक किस्सा सुना था कि एक बार वे अपने उस्ताद और मुजतबा साहब के दोस्त वाली आसी साहब की दुकान पर पहुंचे तो उस्ताद दोनो हाथों से अपना सर पकड़े, नज़रे झुकाए ख़ामोश बैठे थे. पंत साहब ने देखा तो वजह पूछी. उस्ताद बोले- ‘‘क्या बताएं पंत. कैसे कैसे चूतियों से पाला पड़ जाता है. अभी एक साहब आए थे- ‘’फलाने ढिमाकवी’’. कहने लगे मैं शेर लिखता हूं. अपना शागिर्द बना लीजिए. मैने कहा- शेर लिखते तो आप हैं, पढ़ते भी हैं कुछ ?तो बोले जी मैने गालिब को पढ़ा है. मैने कहा अच्छा ! कोई शे’र सुनाइए उनका जो आपका पसंदीदा हो. तो बोले- ‘बेवकूफों की कमी नहीं है गालिब…’ किसी तरह समझा-बुझा कर उन्हे रूख़सत किया लेकिन उस सदमे से अबतक उबरा नहीं हूं.’’ वाकया सुनकर पंत साहब को भी सदमा लगते लगते बचा. फिर किसी तरह उन्होने फलाने ढिमाकवी की तरफ से माफी मांगते हुए उस्ताद को सदमे से उबारा.बहरहाल मुजतबा साहब से मैने कह तो दिया कि मैं उनका खाका लिखने की कोशिश करूंगा लेकिन सच ये है कि उनका खाका लिखने की न तो मेरी हिम्मत है न हैसियत. मैं तो अपनी निहायत कमज़ोर कलम से उन पर सिर्फ एक सादा मज़मून (लेख) लिखना चाहता हूं जिसमें उनको लेकर अपने जज़्बात का इज़हार कर सकूं. ये मज़मून खाकानुमा (ख़ाके जैसा दिखने वाला) ज़रूर हो सकता है
लेकिन खाका बिल्कुल नहीं. क्योंकि किसी ख़ाका लिखने वाले का खाका लिखने में बहुत सी मुश्किलें हैं साहब. वो भी तब जब आप अपने हकीर (तुच्छ) कलम से मुजतबा हुसैन जैसे किसी अजीम शख़्स का ख़ाका लिख रहे हों, वो भी उसी के हुक्म पर. ये वैसा ही है जैसे मकबूल फिदा हुसैन दीवारों पर पुताई करने वाले किसी शख़्स से अपनी तस्वीर बनाने का इरशाद (आदेश) करें या फिर मोहम्मद रफी साहब मोहम्मद अज़ीज़ को अपने गाना अपने सामने गाने को कहें. बचे रहना ही बेहतर है. इस सिलसिले में एक मुश्किल ये भी है कि आप चोरी का माल उसी को नहीं बेच सकते जिसके घर से आपने इसे चुराया है.
मामला ये है कि मुजतबा हुसैन के एक खाके से जुमले चुरा चुरा कर मैने दस दस खाके बनाए हैं, या यूं कहें कि मेरा एक खाका मुजतबा साहब के दस खाकों के जुमले आपस में गड्ड-मड्ड कर देने भर बन जाता है और ऐसा बन जाता है कि पहली नजर में एक दम मौलिक मालूम होता है. इस मामले में अपनी क़िस्मत भी कुछ कम ‘गुलज़ार’ नहीं. और बफ़ज़्ले खुदा अब तो खाकसार अपने हल्का-ए-अहबाब (मित्र समूह) में अच्छे-ख़ासा खाकानिगार कहलाने लगा है. लेकिन अब मुजतबा साहब के जुमलों से उन्ही
का खाका थोड़े ही लिख सकता हूं. आख़िर चोरी के भी कुछ आदाब (नियम) होते हैं. फिर खाका लिखने के बाद उनको सुनाना..ये तो चोरी के ऊपर सीनाजोरी करना हो जाएगा. साइकिल लेकर हवाई जहाज में टक्कर मारने का हुनर मुझमें नहीं है. इसलिए मैं एक अदद मज़मून लिखना चाहता हूं खाका नहीं. मुजतबा हुसैन का खाका लिखने में सबसे बड़ी मुश्किल तो खुद मुजतबा हुसैन ने पैदा कर दी है. अपना खाका खुद लिख के. बताइए साहब ! कोई ख़ुद का भी खाका लिखता है. वो भी तब जबकि वो अपने
मुल्क का सबसे मशहूरो-मारूफ खाकानिगार हो और पहले ही सैंकड़ों खाके लिख कर शोहरत की बुलंदी पर बैठा हो. एक तो आपने पहले ही दूसरों के लिखने के लिए कोई शख्स बाकी नहीं रखा. क्योंकि किसी शख्स पर आपके लिख देने के बाद कोई दूसरा उस पर लिखने की हिम्मत जुटा ही नहीं सकता. जब तक मुजतबा साहब ने खुद अपना खाका नहीं लिखा था तब तक लिखने वालों को ये तस्कीन (संतुष्टि) थी कि और किसी पर नहीं तो कम से कम मुजतबा साहब पर लिखकर ही वे खुश हो लेंगे. मगर मुजतबा हुसैन ने उन्हे इस खुशी से भी महरूम कर दिया. हालांकि इस बाबत शिकायत किए जाने पर वे निहायत इन्किसार (विनम्रता) से कहते हैं कि ख़तामुआफ हुज़ूर ये खाका मैने लिखा नहीं बल्कि राजेन्द्र यादव ने
मुझसे लिखवा लिया. मगर होंठो पर खेलती मुस्कुराहट साफ बताती है, कहना चाहते हैं- ‘देखो ! इसे कहते हैं खाका. मुजतबा हुसैन पर इससे बेहतर कोई लिख पाए तो लिखे.’ लिहाज़ा लिखने वाले की आखिरी शम्मे उम्मीद (आशा की किरन) भी झिलमिलाकर रह जाती है.
मुजतबा साहब अपने बारे में कहते हैं कि वे सिकंदरे आजम से इसलिए बड़े हैं क्योंकि सिकंदरे आज़म ने लता मंगेशकर का गाना नहीं सुना था. अकबर भी उनसे छोटा है क्योंकि उसने ग़ालिब का दीवान नहीं पढ़ा था. जूलियस सीज़र को इस बात पर अपने से कम बताते हैं कि उसने शेक्सपीयर का ड्रामा जूलियस सीज़र नहीं पढ़ा था. खुद को शेक्सपीयर की नज़र से देख लेता तो उसे अपनी अज़मत का अहसास होता. यही नहीं लोग कहते हैं कि एक बार तो उन्होने बड़े गुलाम अली की आड़ लेकर नेपोलियन की ऐसी तैसी
कर दी थी. लोग कुछ भी कहें लेकिन अगर आप मुजतबा साहब के तर्कों पर गौर करें तो पाएंगे कि वो सचमुच इन लोगों से बड़े हैं. बल्कि कभी कभी तो मैं भी खुद को इन शख्सियात से महज़ इसलिए बड़ा मानता हूं कि इनमें से किसी ने मुजतबा हुसैन के मज़ामीन नहीं पढ़े. उनको जाना नहीं. आधी सदी से ज़्यादा की अदबी ज़िंदगी, पूरी दुनिया का सफ़र, ज़माने भर की ज़बानों में तर्जुमा,पचास से ज़्यादा किताबे, सैंकड़ों टीवी और रेडियो प्रस्तुतियां, दर्ज़नों स्कॉलर्स के पीएचडी टॉपिक,पद्मश्री समेत बेशुमार सम्मान और शोहरत की बुलंदी. तंज़ो-मिज़ाह के हवाले से अपनी ज़िंदगी में ही वो एक अफ़सानवी शख़्सियत बन चुके हैं. आने वाली नस्लें यकीनन हमसे रश्क़ करेंगीं कि हमने मुजतबा हुसैन को देखा है. उनको नज़दीक
मैने मुजतबा हुसैन को पहले पहल कब जाना, इसके जवाब में याद आता है कि 2004 या 2005 के आस पास लखनऊ की राजेंद्र नगर लाइब्रेरी से एक किताब ईशू करवाई थी जिसमें उर्दू के चुनिंदा हास्य-व्यंग्य का संकलन था. कौन कौन मुसन्निफ (लेखक) उसमें शामिल थे, उस उम्र में इस बात में दिलचस्पी नहीं थी. क्योंकि वो उम्र चश्मे ग़ज़ालां (हिरन जैसी आंखें) और ज़ुल्फ़-ए-परीशां (बिखरे हुए बाल) में दिलचस्पी की होती है. उर्दू मुसन्निफीन के बारे में तब ज़्यादा मालुमात भी नहीं थी. हमारी तवज्जो सिर्फ मज़ामीन
में थी. किताब का जो मज़मून सबसे ज़्यादा पसंद आया था बल्कि दीवानगी की हद तक पसंद आया था वो था- ‘अल्लामा नारसा की वफ़ात पर’. इसी दीवानगी में एक बार तो ये भी ख़्याल आया कि क्यों न किताब ही पार कर दी जाए. लेकिन जैसे ही मैने पकड़े जाने पर होने वाली छीछा-लेदर का तसव्वुर किया मुझ पर अपनी नैतिक और सामाजिक ज़िम्मेदारियों का इल्हाम हो गया. इसके बाद मैंने किताब पार करने का इरादा तर्क़ कर दिया. मैं समझ गया था कि अगर अपनी वफात (मौत) से बचना चाहता हूं तो अल्लामा की वफात किताब ईशू करवा के पढ़ना ही ठीक है. लिखने वाले के नाम पर तब गौर नहीं किया था. लेकिन किताब लेने के बाद मज़मून ज़माने भर को सुनाया. सबने ने उसे इतना ही पसंद किया
जितना कि मैने. इसके बाद काफी अर्से तक मैं अल्लामा नारसा को फरामोश किए रहा. इसके तकरीबन तीन साल बाद भोपाल के माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय की लाइब्रेरी में मेरी नज़र एक दूसरी किताब ‘उर्दू के चुनिंदा हास्य व्यंग्य’ पर पड़ी. पता नहीं क्यों इसे देखते ही मुझे वो राजेंद्र नगर लाइब्रेरी वाली किताब और अल्लामा नारसा वाला मज़मून याद आ गया. हालांकि ये किताब वो नहीं थी. लेकिन फिर भी मैने इसे खोला कि शायद मुझे इसमें अल्लामा नारसा दोबारा मिल जाएं. मेरा दिन अच्छा था. किताब में वो मज़मून शामिल था. अब तक मुझे इतनी अक़्ल भी आ चुकी थी कि कुछ पढ़ते वक्त मुसन्निफ के नाम पर भी गौर कर लेना चाहिए. सो मैने सबसे पहले ये देखा कि
इसे लिखा किसने है. नाम था मुजतबा हुसैन. हालांकि 2004 से 2007 के बीच लिखने पढ़ने की प्रक्रिया में बढ़ते हुए मेरी जानकारी में ये इज़ाफा हो चुका था कि मुजतबा हुसैन उर्दू के वरिष्ठ व्यंग्यकार और स्तम्भकार हैं. लेकिन ढंग से पढ़ने के नाम पर मैने अब तक उनका सिर्फ एक लेख पढ़ा था- अल्लामा नारसा की वफात पर. और वो भी बिना ये जाने कि ये मुजतबा हुसैन का लिखा हुआ है. लेकिन जब ये जान पाया तो अफसोस हुआ कि मैने अब तक उनको पढ़ा क्यों नहीं.इसके बाद शुरू हुआ मजतबा हुसैन को ढूंढ ढूंढ कर पढ़ने का सिलसिला. जितना उन्हे पढ़ता गया उतनी उन्हे और पढ़ने ख्वाहिश तेज़ होती गई. लेकिन ओस के चाटने से प्यास नहीं बुझती. इसलिए ये तय किया कि उर्दू सीखी जाएगी. ताकि मुजतबा साहब को मन भर पढ़ा जा सके. ये भी तय किया कि अगर कभी हैदराबाद जाना हुआ तो सबसे पहले मुजतबा साहब के दर-ए-दौलत पर बोसा दिया जाएगा. हालांकि
इस सिलसिले में वक्त काफी वक्त तक मुझपर मेहरबान नहीं हुआ.आख़िर छह साल के तवील अरसे बाद 2013 में जिस दिन मेरा वर्धा में पीएचडी में एडमिशन हुआ एडमिशन से ज़्यादा खुशी मुझे इस बात की थी कि मेरे और मुजतबा साहब के बीच की दूरी आधी हो गई. अब मेरे और उनके बीच सिर्फ एक रात का फ़ासला है. उसी दिन उनका नंबर ढूंढा, उनको फोन किया और उन्हे बताया कि मेरा और उनका क्या रिश्ता है. आपको क्या बताऊं कि फिर क्या हुआ.
हज़ारों-लाखों लोगों को हंसना सिखाने वाला शख़्स जज़्बाती होकर रोने लगा. भरे गले से मुझसे कहा- ‘मैं एक गोशा-ए-गुमनामी में पड़ा हुआ हूं. जिस ज़बान का मुसन्निफ हूं उसका हाल खुद मुझसे बेहतर नहीं. जिस शहर का शहरयार (राजकुमार) था उसी को मेरी याद बहुत कम आती है. मेरा दौर देखने वाली आंखे धुंधला चुकी हैं. ऐसे में आप जैसा नौजवान, वो भी हिन्दी वाला मुझे इतना जानता है, ताज्जुब है साहब.’
इस पर मैने कहा- ‘सब आप ही का सिखाया-पढ़ाया है सर. और मैं आपको सिर्फ जानता ही नहीं मानता भी हूं. आप जैसा मिज़ाहनिगार इस मुल्क में दूसरा नहीं.’ वो बोले- ‘ग़ालिब का एक शेर है साहब- मुज़महिल हो गए कुवा ग़ालिब, वो अनासिर में एतदाल कहां. बस वही कैफियत है अपनी.’ मैने अर्ज़ किया- ‘सर हम तो मोतकिदे मीर हैं कि मत सहल हमें जानों फिरता है फलक बरसों, तब ख़ाक के परदे से इंसान निकलते हैं’. बहुत ख़ुश हुए. ख़ूब दुआएं दी और देर तक बात की. उनसे बात होने से पहले तक मैं ये सोंचता था कि हैदराबाद जाऊंगा तो मुजतबा साहब से मिलूंगा लेकिन इस बातचीत के बाद मैने तय किया कि मैं मुजतबा साहब से मिलने हैदराबाद जाऊंगा. उसके बाद उनसे गाहे बगाहे फोन पर बात होती रही. फिर एक दिन उनकी बहुत याद आई तो चल पड़ा उनसे मिलने हैदराबाद, वो भी चालू बोगी में हैदराबाद पहुंचा तो और कुछ नहीं किया. सीधा उनके घर पहुंचा. दिन भर उनके साथ रहा और शाम को वर्धा वापस. उन्होने पूछा भी- ‘चार मीनार नहीं देखोगे ?. यहां से पास ही है’. मैने कहा- ‘मेरे लिए हैदराबाद मतलब मुजतबा हुसैन. और कुछ देखने की ख्वाहिश नहीं. आपको देख लिया मतलब चार मीनार, हुसैन सागर सब देख लिया.’ इस पर मुस्कुराए और कहने लगे- ‘जेनुइन लोग इन दिनों बहुत कम मिलते हैं. लेकिन तुमसे मिलकर यकीन हुआ कि ऊपर वाले ने जेनुइन लोग बनाना अभी बंद नहीं किया.’
उन्होने मुझे ढेर सारी किताबें दीं. और हर किताब पर अलग अलग मेरे लिए अलग अलग इंतेसाब (समर्पण) लिखा. मन में ये ख़याल आया कि सारी किताबों के इंतेसाब एक में मिला दिए जाएं तो मुझ पर एक पूरा खाका लिख जाएगा. उसके बाद मैं भी इतरा इतरा कर ये बात कह सकता हूं कि मुजतबा साहब ने एक खाका मेरे बारे में भी लिखा है. फिर मुझे अपने आप पर शर्म आई कि सारी चार सौ बीसी मैं मुजतबा साहब के लिखे के साथ ही क्यों करता हूं. बातें भी उनसे खूब हुईं. उनके बारे में, कृश्नचंदर के बारे में, हैदराबाद के बारे में, लखनऊ के बारे में,जवानी के बारे में और सबसे दिलचस्प मख़्दूम मोहिउद्दीन और इश्क़ के बारे में. मख़्दूम के बारे में उन्होने कहा- ‘ये वही हैदराबाद है जहां कभी आप राह चलते किसी आदमी को भी मख़्दूम के शेर का एक मिसरा सुनाते तो वो आपको दूसरा मिसरा सुना कर शेर पूरा कर देता था, ज हां के रिक्शे वालों तक को ‘इक चमेली के मंडवे तले’ और ‘रात भर दीदा-ए-नमनाक मे लहराते रहे’ याद थी, और यही हैदराबाद है कि यहां की नई नस्ल मख्दूम के नाम तक से वाक़िफ़ नहीं. नौजवानी के दिनों में मैं बीस किलोमीटर पैदल चल के गया था मख़दूम से मिलने.’ इस पर मैने मुस्कुराते अर्ज़ किया- ‘मैं भी अपनी नौजवानी में एक बार मुजतबा हुसैन साहब से मिलने जनरल टिकट से 500 किमी चला गया था. और शेर याद करना कौन बड़ी बात है, मुझे तो मुजतबा हुसैन के खाके याद हैं.’ वो हंसे और कहा – ‘इसका मतलब है लखनऊ की मिट्टी आज भी ज़रख़ेज़ है.’ शोहरत के बारे में पूछने पर उन्होने कहा- ‘मिल जाए तो अच्छी बात है,लेकिन इसके पीछे नहीं भागना चाहिए.’ जवानी के बारे में कहा- ‘तसव्वुर कीजिए कि एक घनघोर रात में किसी अंधेरी पहाड़ी पर एक बड़ा सा हॉल है जो रौशन है, जिसमें बॉल डांस हो रहा है. म्यूज़िक बज रहा है. कि तभी एक परिंदा हॉल की एक खिड़की से हॉल में दाखिल होता है और उड़ता हुआ दूसरी खिड़की से
निकल जाता है. बस इतना वक़फ़ा ही जवानी है.’इश्क पर बात शुरू हुई तो 82 साल की उम्र के बावजूद खुद को जज़्बाती होने से नहीं रोक सके. कहने लगे-‘कुछ गलतियां हो गईं थीं जो अब तक याद आती हैं. इश्क़ से किसको मफर (निजात) है, लेकिन ज़िंदगी को मुकम्मल भी यही करता है,इसके बग़ैर ज़िंदगी का तसव्वुर भी नहीं किया जा सकता’ फिर
जोश मलीहाबादी का एक किस्सा याद आ गया. जोश साहब शराब पी रहे थे कि जवानी की महबूबाओं को याद करके उनकी आंख भर आई. इतने में उनकी बेगम कमरे में दाख़िल हुईं और उनकी नज़र जोश पर पड़ी. जोश साहब ने फौरन बड़ी मासूमियत से कहा- ‘वालिदा मरहूमा याद आ गईं थीं’. इसके बाद काफी देर तक हंसने हंसाने का दौर चलता रहा. और जब मैं उनके दौलतखाने से रूख़सत हुआ तो उन्होने मुझे दुनिया की सबसे बड़ी दौलत यानी अपनी दुआओं से मालामाल करके रवाना किया. साथ ही कहा-
‘तुमसे मिलके मेरी रूह को कुछ दिन और ज़िंदा रहने की गिज़ा (भोजन) मिल गई. जीने की आरज़ू बढ़ गई. मिलते रहना’.उर्दू की शिगुफ्तगी और आबरू का नाम मुजतबा हुसैन है. वो रहते ज़रूर चार-मीनार के शहर में हैं लेकिन अपने आप में में उर्दू तंज़ो-मिज़ाह (हास्य व्यंग्य) के कुतुब-मीनार हैं. जिस दौर में पिटे हुए चुटकुलों को
तहरीर (लेख) में शामिल करके उसे तंज़ो-मिज़ाह का नाम दिया जा रहा हो उस दौर के ऐसे कितने ही बेहतरीन लतीफे हैं जो पहले मुज्तबा साहब की कलम से निकल कर उनके मज़ामीन में आए और अब पूरा हिन्दुस्तान और पूरी दुनिया घूम रहे हैं. कितनी ही शख़्सियात ऐसी हैं जो शायद जिंदा रहते ही फरामोश(भुला देना) कर दी जातीं लेकिन हश्र तक सिर्फ इस वजह से याद रखी जाएंगी कि मुजतबा हुसैन साहब ने उन पर एक अदद खाका लिख दिया. बंटवारे ने हिन्दुस्तान को मुश्ताक़ अहमद यूसुफ़ी से महरूम
कर दिया लेकिन ग़नीमत है कि मुजतबा हुसैन इस मुल्क़ के ज़र्रे ज़र्रे में आफ़ताब (सूरज) की तरह रौशन हैं. खुद यूसुफी उनके बारे में कहते हैं कि वो बर्रेसगीर (उपमहाद्वीप) के वाहिद (एकमात्र) मिज़ाह निगार हैं जो बेसाख़्ता (बिना किसी पूर्व तैयारी या सोच विचार के) लिखते हैं. जिन्होने बहुत लिखा है लेकिन कमज़ोर कभी नहीं लिखा. मुझे भी कभी कभी लगता है कि वो एक ही वक्त में दोनो हाथों से अलग अलग मज़मून उतनी ही ख़ूबसूरती से लिख सकते हैं.गोपीचंद नारंग ने उनके बारे में कहा है कि पांच सौ साल पहले उर्दू को ग़ज़ल का शहज़ादा दकन से मिला था जिसे हम वली दकनी के नाम से जानते हैं और इस दौर में एक बार फिर दकन ने मुजतबा हुसैन के तौर पर उर्दू को इसके तंज़ो मिज़ाह
का शहज़ादा दिया है मेरी ख़ुशक़िस्मती है कि पहली ही मुलाकात में उन्होने मुझसे कहा कि जवानी में मैं भी तुम्हारी तरह था. मै बहुत खुश हुआ और चहकते हुए जवाब दिया- ‘और मैं बुढ़ापे में आपकी तरह बनना चाहता हूं.’ इस पर उन्होने मेरी पीठ पर हाथ रखा और शोख़ी के साथ मुस्कुराते हुए बोले- ‘नी रिप्लेसमेंट फेल हो चुका है, घुटने जवाब दे चुके हैं, खड़ा नहीं रह सकता. चलने फिरने से माज़ूर हूं. ये होता है बुढ़ापा साहब.’ मैं ख़ामोश हो गया. मेरे पास कोई लफ़्ज़ नहीं बचा था…
लेकिन इस वक्त मैं अपने ख़ून से ये अल्फ़ाज़ लिखने को तैयार हूं कि मुज़तबा हुसैन साहब के तंज़ो-मिज़ाह ने उर्दू को जो शगुफ़्तगी अता की है, उसके सबब उर्दू पर कयामत तक बुढ़ापा नहीं आएगा. हश्र के दिन तक वो न सिर्फ अपने पैरों पर मज़बूती से खड़ी बल्कि बुलंदियों का सफर भी तय करती रहेगी
और उसकी आवाज़-ए-पा (पैरों की आवाज़) हमेशा लोगों के दिलों में धड़कन बनकर समाई रहेगी. या तो दीवाना हंसे या तू जिसे तौफ़ीक़ दे वरना इस दुनिया में आकर मुसकुराता कौन है !