बिखरी ज़िन्दगी
Prof Nehaluddin Ahmad
ज़रा सी चूक पर जीवन छूट जाता है,
ज़रा से गुबार में रिश्ता टूट जाता है।
यही है फ़लसफ़ा ज़िंदगी निभाने का,
वरना वक़्त का सुर लय से छूट जाता है।
ज़रा सी लापरवाही में दिल टूट जाता है,
बच्चे छूट जाते हैं, कभी बीवी छूट जाती है।
ज़िंदगी एक स्वार्थ है, और इस सफ़र में,
दोस्त छूट जाते हैं, कभी महफ़िल छूट जाती है।
ज़िंदगी एक खुदगर्जी है, ये कड़वी सच्चाई है,
हर मुसाफ़िर अपनी ही मंज़िल की परछाई है।
इसके सफ़र में न इन्सानियत, न रिश्ते ठहरते हैं,
न ही दिल की महफ़िलें हमेशा सजा के रखते हैं।
दोस्त छूट जाते हैं राहों पे चलते-चलते,
कभी अपने भी अजनबी से लगने लगते हैं।
ज़रा संभल के चलो दुनिया की राहों पर,
क्योंकि हर मोड़ पर इम्तिहान खड़े रहते हैं।
ज़िंदगी क्या है — ये मुश्किल सवाल है,
सदियों से इस पर बहस का बुख़ार है।
हर सोच, हर दर्शन ने समझाया इसे,
फिर भी हर दिल में ये अन्सुल्झा सवाल है।
आज अपनी सालगिरह परदिल से पूछता हूँ ,
जाने क्यों ज़िंदगी जीने की इतनी जल्दी है।
क्या किसी मंज़िल की चाह जो रुकने नहीं देती,
या वक़्त की रफ़्तार जो ठहरने नहीं देती।
ज़िन्दगी की दौड़ में, खो गईं यादें मुस्कुराती।
अब तो बस यही है आस, कुछ पल ठहर जाएँ।
ज़िन्दगी को मुड़ के देखें, फिर जियें वो लम्हे सारे,
काश ऐसा हो सके कि फिर वहीं पहुंच जाएं।
काश ये ठहर जाए कुछ पल के लिए ही सही,
चलो ठहाके लगाते हैं, दोस्ती के लिये ही सही।
बचपन में जो न दे पाए खिलौने उनको,
ढूंढ कर दे दें कोई खिलौना, झूठी तशफ्फ़ी ही सही।
Prof Nehaluddin Ahmad, LL.D. Professor of Law, Sultan Sharif Ali Islamic University (UNISSA), Brunei, email: ahmadnehal@yahoo.com