फै़ज़ान मुसन्ना
पूंजीपतियों के सहयोग से बनी मोदी सरकार आयी तो थी ,जनता के अच्छे दिनों के वादों के साथ । तीन महीने गुजर भी चुके हैं मगर अच्छे दिन तो सिर्फ पूंजीपतियों के ही आते दिख रहे हैं। मोदी सरकार बाकायेदा रेड कारपेट बिछा कर पंूजीपतियों के स्वागत को तैयार नजर आ रही है। सत्तानशीन होते ही भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार ने सरमाएदारों के पक्ष में और श्रमिकों के खिलाफ , श्रम कानूनों में अमानवीय संशोधन करना शुरु कर दिया हैं । हालांकि इसकी आशंका पहले से ही थी क्योंकि पूजींपतियों ने और अधिक मुनाफा कमाने के लिए, पूजींवाद को समर्पित निजाम के चैकीदार को बदलने के लिये भारी पूंजी के निवेश के साथ-साथ रणनीतिक सहयोग भी किया था , और अब समय है मूलधन के साथ ब्याज वसूलने का ।
पूंजीपतियों के धन की प्यास बुझाने की राह में मौजूदा कथित ही सही , मगर श्रम कानून रोडा बनते हैं । पंूजीपतियों को अपनी मर्जी से मजदूरों की छटनी , कारखाने में ताला बंदी घोषित करने के साथ-साथ बडे पैमाने पर ठेकाकरण तथा तमाम मजदूरों को श्रम कानूनों के दायेरे से बाहर करने की आजादी चाहिए और केन्द्र की सरकार ये सब कुछ उनको थाली में सजा के देने को राजी हो गयी है । वैसे भी हमारे देश में श्रम कानून कम ही लागू होते हैं इनका उल्लंघन ज्यादा किया जाता है । संगठित क्षेत्र में देश की श्रम शक्ति के साठ फीसद से ज़्यादा हिस्से को न्यूनतम वेतन , पी एफ तथा ई एस आइ जैसे बुनियादी वैधानिक लाभ तक से वंचित रखा जाता है । हद तो यह है कि सार्वजनिक क्षेत्र और सरकारी संस्थानो तक में श्रम कानूनों की खुले आम धज्जियां उडायी जाती हैं। अनेक संस्थानों मे 12 घंटे काम करना एक आघोषित कानून बन गया है । श्रम कानूनों को मालिकान के पक्ष में तब्दील करने की इस परियोजना के लिए राजस्थान राज्य सरकार को एक प्रयोगशाला के तौर पर इस्तेमाल किया जा रहा है।राजस्थान राज्य सरकार औद्योगिक विवाद कानून , फैक्टरीज कानून और ठेका कानून को पहले ही संशोधित कर चुकी है ं।
उसने एक अगस्त को शासक पार्टी से संबंध रखने वाली ट्रेड यूनियन समेत तमाम ट्रेड यूनियनों के विरोध के बावजूद ये विधेयक पारित करवा दिया । राजस्थान औद्योगिक विवाद कानून में जो संशोधन किए गए हैं उससे मालिकान को सरकार की बिना किसी पूर्व अनुमति के 300 मजदूरों तक संख्यावाले तमाम संस्थानों में मजदूरों की छटनी करने का अधिकार दे दिया है। इन संशोधनों के जरिए किसी भी संस्थान में ट्रेड यूनियनों को तब तक मजदूरों की मांगों या शिकायतों को उनके प्रतिनिधि के तौर पर पेश करने से वंचित कर दिया गया है ,जब तक कि संबंधित संस्थान के मजदूरों में उस ट्रेड यूनियन की सदस्यता कम से कम 30 प्रतिशत ना हो। वहीं दूसरी तरफ फैक्टरी की परिभाषा ही संशेधित कर दी है , फैक्टरी कानून में बिना बिजली के काम करने वाली फैक्टरियों में मजदूरों की सीमा 20 से बढाकर 40 , तो बिजली से काम करने वाली फैक्टरियो में ये सीमा 10 से बढाकर 20 कर दी गयी है। संशोधित कानून में इस बात का भी विशेष उल्लेख किया गया है कि राज्य सरकार की लिखित अनुमति के बिना अदालतें मालिकान के खिलाफ कानून के उल्लघंन की शिकायतों का संज्ञान नहीं ले सकती हैं । श्रम कानूनो के उल्लंघन के लिए दंड भी नरम कर दिए गये हैं। ठेका मजदूर कानून संशोधन कर उन तमाम ठेकेदारों को इस कानून के दायरे से बाहर कर दिया गया है जिनके पास 49मजदूर तक काम करते हैं। इस प्रकार ठेका मजदूरों के एक बडे तबके को श्रम कानूनों के दायरे से बाहर कर दिया गया है। राजस्थान सरकार के इन कदमों से फैक्टरी मालिकान के श्रम कानूनों के तमाम उल्लघन अब वैध बन जायेगें ।
राजस्थान में कुल 7622 फैक्टरियों में से 7252 फैक्टरियां ऐसी है जिसमें 300 से कम मजदूर हैं और अब ये तमाम फैक्टरियां हायर एंड फायर की व्यवस्था के तहत आ जांएगी । वहीं दूसरी तरफ केंद्र सरकार के श्रम मंत्रालय ने अपनी वेब साइट पर 5जून 2014 को उन प्रस्तावों को जारी किया है जो उसके समक्ष संशोधन के लिए हैं। इन प्रस्तावों में फैक्टरी कानून , न्यूनतम वेतन कानून और एप्रेंटिसशिप कानून जैसे महत्वपूर्ण कानून शामिल हैं। फैक्टरी कानून के अनुच्छेद 56 में संशोधन के जरिए काम का समय जिसमें किसी मजदूर को खाने की छुटटी समेत उससे आठ घंटे तक काम लेने के लिए रोके कर रखा जा सकता है ,उस अवधि को बढाकर 10.5घंटे से 12 घंटे तक करने का प्रस्ताव है। मौजूदा प्रावधानों के अनुसार चीफ इंस्पेक्टर आॅफ फैक्टरीज की लिखित अनुमति से ही कारण विशेष स्पष्ट करते हुए ही काम की अवधि10.5 घंटे से 12घंट की जा सकती है। लेकिन इस संशोधन के बाद काम की अवधि बढाने के लिए राज्य सरकार को किसी अनुमति की जरुरत नहीं पडेगी ।काम की अवधि बढाने से सीधे सीधे रोजगार सृजन पर असर पडेगा । यही हाल न्यूनतम वेतन के निर्धारण के मामले में है । न्यूनतम वेतन कानून में प्रस्तावित संशोधन में 43वें श्रम सम्मेलन की सर्वसम्मत सिफारिशों की अनदेखी की गयी है जिसमें कहा गया था कि रैपिटकोस बे्रट मामले में सर्वोच्च न्यायलय के निर्देशों के साथ 15वें भारतीय श्रम सम्मेलन की सिफरिशों के आधार पर न्यूनतम वेतन निर्धारित किया जाये।
अब जो संशोधन लाया जा रहा है उसमें वेतन की राष्ट्रीय स्तर पर एक सीमा की बात कही जा रही है लेकिन बडी चालाकी से कोई मानदंड नहीं बताया गया है ताकि सरकारे मनमाना खेल सकें । इस प्रकार के कानूनों के चलते देश की 80 प्रतिशत फैक्टरियों के मजदूर असहाय हालात में पहुंच जायेगें । लेकिन दुख की बात तो यह है कि इतने महत्वपूर्ण मामले पर भी झूठ बोला जा रहा है। सरकार बडी बेशर्मी से दावा कर रही है कि इन बदलावों से निवेश आकर्षित होगा और रोजगार सृजन होगा ।
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