सौरभ बाजपेयी
आज शहीद चन्द्रशेखर आज़ाद की जयंती है. 23 जुलाई 1906 को मध्य प्रदेश में अलीराजपुर जिले के भवरा गाँव में जन्मे आज़ाद भारतीय क्रांतिकारी आन्दोलन का सबसे बड़ा मिथक थे. मिथक इसलिए कि ज्यादातर लोग उन्हें “किसी जासूसी उपन्यास के काल्पनिक रहस्यात्मक अति साहसी हीरो” की तरह याद करते हैं.
उनके बारे में आम है कि आज़ाद पुलिस को चकमा देने में माहिर थे. वो कभी साधू कभी ड्राइवर का भेष बनाकर जासूसों को धता पढ़ाते रहते थे. वो इतने अचूक निशानची थे कि उड़ती चिड़िया पर निशाना साध सकते थेआदि-आदि. उनके बारे में कमोबेश यह सब बातें सच थीं. बावजूद इसके आज़ाद को सिर्फ इन्हीं वजहों से याद आज़ाद क्रांतिकारी आन्दोलन को दो पीढ़ियों के बीच का सेतु थे. एक पीढी रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाकउल्लाह खान, रोशन सिंह और राजेंद्र लाहिरी सरीखों की थी. काकोरी ट्रेन डकैती (1925) के बाद यह समूची पीढ़ी या
तो शहीद हो गयी या बुरी तरह तितर-बितर हो गयी. इनमें आज़ाद ही ऐसे थे जो पुलिस के हत्थे नहीं चढ़े और जिनके पास हर मुसीबत के बावजूद हिन्दुस्तान रिपब्लिकन आर्मी को पुनर्संगठित करने का जज़्बा था. आज़ाद को याद करने की बुनियादी कसौटी यह है कि वह आज़ाद ही थे जिन्होंने क्रांतिकारी आन्दोलन की दूसरी पीढ़ी को खुद अपने परिश्रम से संगठित किया था. इस पीढ़ी का सबसे चमकता नाम शहीद भगत सिंह थे जो क्रान्ति का एक मौलिक दर्शन विकसित करने की राह में आगे बढ़ रहे थे. भगत सिंह और चंद्रशेखर आज़ाद लगभग हमउम्र थे. इसके बावजूद आज़ाद हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी के निर्विवाद कमांडर-इन- चीफ थे.
अपने सभी साथियों पर उनका जबर्दस्त नैतिक प्रभाव था.कुलदीप नैयर भगत सिंह पर लिखी अपनी किताब में एक बड़ा रोचक किस्सा सुनाते हैं. एक बार आगरा के पास क्रांतिकारी बम बनाने की ट्रेनिंग ले रहे थे. पुलिस की नज़र से बचाकर यह काम सिर्फ जंगल में ही किया जा सकता था. अपनी जरूरतों के लिए वो कभी पास की हाट या कभी आगरा तक भी चले जाते थे.
एक बार राजगुरु ऐसी ही किसी बाज़ार से एक विदेशी मॉडल का बिकनी पहने पोस्टर ले आये. अपने बिस्तर के ऊपर की दीवार पर चिपकाकर उन सबने उसे मनोरंजन का माध्यम बना लिया. बीसेक साल के युवा जोश से भरे लड़के यह नहीं जानते थे कि उनके बीच एक दिन अचानक आज़ाद आ धमकेंगे. आज़ाद यह देखते ही गुस्से से लाल- पीले हो गए और उन्होंने उस पोस्टर के धुर्रे उड़ा दिए. बाकी सब हमउम्र साथी अवाक् खड़े देखते रहे. एक गुप्त क्रांतिकारी संगठन के संगठनकर्ता होने के नाते वो घोर अनुशासन के हिमायती थे.
भगत सिंह चंद्रशेखर आज़ाद के बड़े चहेते थे. एक संगठनकर्ता होने के नाते उन्हें भगत सिंह की बौद्धिक क्षमताका अंदाजा था. इसीलिए वो भगत सिंह को व्यक्तिगत साहसिक कार्यवाहियों से दूर रखना चाहते थे. वो अपनी जेबों में किताबें भरकर लाते थे ताकि भगत सिंह पढ़ सकें. विचारधारात्मक मुद्दों पर वो भगत सिंह पर आँख मूंदकर यकीन करते थे. उन्होंने कुछ लिखा नहीं क्योंकि वो अपनी जासूसी को लेकर बेहद सचेत थे. परन्तु उनके साथी और समकालीन बताते हैं कि वो अपनी सोच में बहुत प्रगतिशील थे. जहाँ एक ओर भगत सिंह भारतीय क्रन्तिकारी आन्दोलन के प्रतीक माने गए वहीं चंद्रशेखर आज़ाद की छवि मूंछों पर बेवजह ताव देने वाले आर्य समाजी क्रांतिकारी की बना दी गयी. हमें सोचना चाहिए कि जो आदमी भगत सिंह जैसी महान बौद्धिक को सहेजता हो, वह अपनी सोच में दकियानूस कैसे हो सकता है?
इसे सिद्ध करने के लिए कई मिसालें दी जा सकती हैं. पूर्णचंद्र सनक नामक आज़ाद के एक शिष्य ने अपनी किताब एक गुप्तचर क्रांतिकारी के संस्मरण में लिखा है कि एक बार आज़ाद उनसे बोले— हे भगत! तेरी ये हिन्दू राजतंत्र की कल्पना देश को बहुत बड़े खतरे में डालने वाली है. कुछ मुसलमान भी ऐसा ही स्वप्न देखते हैं.
लेकिन यह तो पुराने शाही घरानों के हिन्दुओं और मुसलमानों की ख़ब्त है. हमें तो फ्रंटियर से लेकर बर्मा तक और नेपाल से लेकर कराची तक के हर हिन्दुस्तानी को साथ लेकर एक तगड़ी सरकार बनानी है. जब फिरंगी भाग जाएंगे तब ऐसी सरकार बनेगी और तब हर आदमी खुशहाल होगा. यानी आज़ाद अपनी सोच में बहुत उनके लिए भी हिंसा कोई बिन सोच-विचार की चीज़ नहीं थी. क्रांतिकारी दल को अपना काम चलाने के लिए डकैती आदि करनी पड़ती थीं. पूर्णचंद्र सनक बताते हैं कि एक बार कानपुर के पास एक मंदिर से पुखराज की
मूर्ती चुराने की योजना बनी. आज़ाद उसके काम को अंजाम देने वाले दल के मुखिया थे. मंदिर और आस-पास के माहौल को देखकर आज़ाद को यकीन हो गया कि इस काम में एक-दो निर्दोषों की जान जा सकती है. चार दिन तक वो लोग मंदिर गए लेकिन आज़ाद ने एक्शन की अनुमति नहीं दी. इस पर उनके कुछ कनिष्ठ साथियों ने कहा कि अब इन लोगों को कहाँ तक बचाया जाए. तो आज़ाद बड़े प्यार से बोले— धत्त पगले! देशद्रोही के सिवा प्रत्येक देशवासी की जान कीमती है, उसे छीनना महापाप है.
आजकल यह झूठ चारों तरफ फैला हुआ है कि जवाहरलाल नेहरु ने चंद्रशेखर आज़ाद की पुलिस से मुखबिरी की थी. पहली बात कि क्रांतिकारी आन्दोलन के लिए चन्दा इकठ्ठा करना, उन्हें छुपने के लिए शरण देना और उनके परिवारों की देखभाल करने का काम अक्सर कांग्रेस के लोग ही किया करते थे. शीर्ष नेतृत्व से लेकर जमीनी कार्यकर्ताओं तक कांग्रेसी और क्रांतिकारी एक-दूसरे की मदद किया करते थे. गांधीवादी सत्याग्रहों में भाग लेने वाले एक ऐसे कार्यकर्ता के बारे में हम खूब जानते हैं जो आज़ाद और उनके साथियों को तक सूचनाएं पहुंचाता था. मोतीलाल नेहरु और जवाहरलाल नेहरु क्रांतिकारी आन्दोलन को खूब चंदा देने वाले लोगों में थे यह बात एक बार आज़ाद के कुछ साथी किसी एक्शन की योजना पर काम करते हुए धन की कमी महसूस कर रहे थे.
उन्होंने इस कमी को पूरा करने के लिए डकैती डालने की योजना बनाई. यह बात जब आज़ाद को पता चली तो उन्होंने साफ़ कहा— जितना चंदा आसानी से इकठ्ठा हो सके, कर लो. बाकी कमी कांग्रेस पूरी कर देगी. कानपूर कांग्रेस के दफ्तर ने तो एक बार अपने गल्ले में जितना रूपया था, सब ‘इमरजेंसी केस’ की मद में डालकर आज़ाद को दे दिया. इस तरह, विचारधारात्मक मतभेदों और संघर्ष के तौर-तरीकों में जमीन-आसमान का अंतर होने के बावजूद मुख्यधारा का गांधीवादी आन्दोलन और क्रांतिकारी संघर्ष एक ही उद्देश्य पर काम कर रहे थे,
वह था— अंग्रेजी राज की जकड़न से देश को आज़ाद कराना.रही बात जवाहरलाल नेहरु द्वारा आज़ाद की मुखबिरी की तो यह सरासर गप्प है. आज़ाद के करीबी उनके विश्वसनीय साथी इस बात का अपने लेखनों में कहीं दूर-दूर तक इसका ज़िक्र नहीं करते. यानी इस तरह के झूठ बाद के दिनों में नेहरु के खिलाफ चले चरित्र हनन अभियान का हिस्सा-मात्र हैं. यह एकदम पुष्ट है कि वीरभद्र
तिवारी नामक क्रांतिकारी साथी की इस विषय में बेहद संदिग्ध भूमिका थी. आज़ाद और उनके एक साथी सुखदेव राज जब अल्फ्रेड पार्क में बैठे थे तो आज़ाद ने वीरभद्र तिवारी को देखा था. आज़ाद और उनके अन्य करीबी साथी पिछले कुछ समय से वीरभद्र पर इतना संदेह करने लगे थे कि उसे मारने की भी योजना बनाई गयी थी. वीरभद्र के वहां से जाने के कुछ समय बाद ही पुलिस की गाड़ी पार्क के बाहर आकर रुकी और आज़ाद इसी मुठभेड़ में वीरतापूर्वक शहीद हुए. आज़ाद की शहादत का जिम्मेदार कौन था इस बात को लेकर
क्रांतिकारी दल के साथियों में मतभेद थे लेकिन इन सभी मतों में और सरकारी दस्तावेजों में भी कहीं पंडित आज़ाद सहित सभी क्रांतिकारी आज़ादी की लड़ाई के सरफ़रोश दीवाने थे. वह अपने उद्देश्यों को लेकर इस कदरसमर्पित थे कि उन्होंने देश के आगे हर स्वार्थ की तिलांजलि दे दी थी. आज़ाद ने बहुत बचपने में ही अपने माता- पिता को छोड़कर क्रांतिकारी आन्दोलन का हाथ थाम लिया था. पुलिस की चौकसी से बचने के लिए जरूरी था कि वो अपने माता-पिता से न मिलें. आज़ाद के साथी विश्वनाथ वैशम्पायन बताते हैं कि हद तो तब हुयी जब एक बार बुजुर्ग माता-पिता की देखरेख के लिए शहीद गणेशशंकर विद्यार्थी ने कुछ पैसा आज़ाद को दिया.
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एचएसआरए पैसे की कमी से हमेशा जूझती रहती थी. ऐसे में चंदे के तौर पर जो पैसा संगठन पर खर्च किया जा सकता था वो अपने माता-पिता को भेजना आज़ाद को गंवारा न हुआ. जब उनसे इस बाबत विद्यार्थीजी ने कुछ दिनों बाद पुछा, तो बोले— विद्यार्थीजी, इस गुलाम देश में लाखों परिवार ऐसे हैं जिन्हें एक समय भी रोटी नसीब नहीं हो पाती. मेरे पाटा-पिता तो दिन में एक बार भोजन पा ही जाते हैं. वे भूखे रह सकते हैं पर पैसे के लिए मैं पार्टी के सदस्यों को भूखा नहीं मरने दूंगा. यह थे आज़ाद जिन्होंने न सिर्फ आज़ाद नाम मिला था बल्कि उन्होंने खुद को बहुत से मायामोह से भी आज़ाद कर लिया था. उनकी जन्मशती पर आज़ादी की लड़ाई
के इस महान नायक का स्मरण करिए और उनसे यह वादा कीजिये कि उन्होंने जिस देश के लिए अपना सर्वस्व दान कर दिया था, उसे आप अपने जीते-जी बर्बाद न होने देंगे.
सौरभ बाजपेयी
संयोजक
राष्ट्रीय आन्दोलन फ्रंट
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