दो माह के मासूम आर्यन को लगातार खांसी आने की शिकायत थी। बार-बार छाती में संक्रमण हो रहा था। नतीजतन वह रात-रात भर सो नहीं पाता था। इलाज करने पर थोड़ी सी राहत मिलती थी लेकिन कुछ दिनों बाद फिर तबीयत बिगड़ जाती थी।
केजीएमयू पीडियाट्रिक सर्जरी विभाग के डॉक्टरों ने जांच की तो पता चला कि बच्चे का दिल, तिल्ली, आंत और पेट अपने स्थान पर नहीं है। ये अंग गले के नजदीक पहुंच चुके थे। डॉक्टरों ने जटिल ऑपरेशन कर अंगों को सही मुकाम तक पहुंचाने में कामयाबी हासिल की है।
हरदोई निवासी दुर्गेश गुप्ता के बेटे आर्यन गुप्ता (दो माह) को जन्म के बाद से ही यह समस्या शुरू हुई। बच्चे का केजीएमयू के पीडियाट्रिक सर्जरी विभाग के डॉ. आशीष वाखलू के निर्देशन में इलाज शुरू हुआ। डॉ. आशीष ने बच्चे की छाती का एक्सरे कराया।
इसमें फेफड़े में झिल्ली (डायफार्म) गड़बड़ नजर आई। बायां फेफड़ा गले के नजदीक था। तिल्ली और छोटी आंत भी पेट के बजाय सीने तक आ चुकी था। फेफड़े के उपर होने की वजह से दिल भी दाहिनी ओर खिसक गया था जिससे दूसरा फेफड़ा प्रभावित हो रहा था।
तीन हजार में एक को होती है बीमारी
डॉ़ आशीष ने बताया कि चिकित्सा विज्ञान में इस बीमारी को इंवेंट्रेशन डॉयफ्राम कहा जाता है। तीन हजार जीवित शिशु में एक को यह बीमारी होती है। जन्मजात इस बीमारी का ऑपरेशन से कारगर इलाज मुमकिन है। यह ऑपरेशन केजीएमयू में संभव है।
फेफड़ों पर पड़ रहा था दबाव
अंगों के ऊपर आने से फेफड़ों पर लगातार दबाव बढ़ रहा था। नतीजतन फेफड़ों को काम करने में अड़चन आ रही थी। डॉ. आशीष ने बताया कि फेफड़े पर दबाव पड़ने से मरीज को सांस लेने में तकलीफ हो रही थी। खांसी आ रही थी। निमोनिया हो रहा था। बच्चा दूध पीने में अड़चन आ रही थी।
सीने में तीन सुराख कर किया ऑपरेशन
डॉ़ आशीष वाखलू ने बताया कि बच्चे की थोरैकोस्कोपी हुई। इसमें बच्चे की छाती में तीन सुराख किया गया। फेफड़े की झिल्ली को नीचे धकेला गया। उसकी परत पर दो बार टांके लगाए। उसके बाद फेफड़ा, तिल्ली, आंत और दिल अपनी जगह पर आ गए। इससे ऊपर की ओर खिसक चुके अंग अपने स्थान पर पहुंच गए।
अभी पेट में लगाया जाता था चीरा
अभी तक बच्चे को बीमारी से निजात दिलाने के लिए पेट में चीरा लगाना पड़ता था। चीरा लंबा लगता था। ऑपरेशन में भी अधिक कठिनाई होती थी। वहीं थौरेकोस्कोप तकनीक से ऑपरेशन आसान हो गया। उन्होंने बताया कि 45 मिनट ऑपरेशन चला।