वरिष्ट पत्रकार प्रदीप कपूर ने यादों के झरोखों से झांक कर कॉफ़ी हाउस में जाने माने नेता, चिन्तक, लेखकों और पत्रकारों की बैठक बाज़ी की बात तो दिल खोल कर की मगर इसका लखनवी कला, संस्कृति, साहित्य और राजनीती पर क्या असर हुआ था, का ज़िक्र करना भूल गए.
§ दिन: बुधवार 24. 09.14
§ स्थान: लखनऊ का पुस्तक मेला
§ चर्चा: लखनऊ का कॉफ़ी हाउस
बुखार से कांपते पत्रकार प्रदीप कपूर जब अपनी पुस्तक पर चर्चा की शुरुआत करने के लिए उठे तो उनकी नज़र वरिष्ट 88 वर्षिय नारायणदत्त तिवारी और उजावाला जिनके गले में उन्हों कोई चार माह पहले मंगल सूत्र पहनाया था, पर पड़ी. कपूर ने कहा आइये तिवारी जी क्यों कि आपके इश्क की शुरुआत भी तो इसी कॉफ़ी हाउस से हुई थी. लोग मुस्कुरा उठे और बहस शुरू हुयी. लखनऊ का कॉफ़ी हाउस इस तरह की किस्से कहानियों का गवाह रहा है.
कहते हैं भारत उप–महाद्वीप को अंग्रेजो से विरासत में अंग्रेजी भाषा के तीम ‘सी’ अक्षर मिले थे जो इस प्रकार है–.कॉफ़ी, क्रिकेट और कैमुनालिज्म और आज यह तीनो अधिकतर लोगों की चेतना से चिपक कर चस्का बना हुआ है. दरअसल कॉफ़ी की चुस्की का चस्का खुद अंग्रेज़ों तक ओटोमन एम्पायर [Ottoman Emprire] दमिश्क [सीरिया] और काहिरा [मिस्र] से 16वीं सदी में पहुंचा और देखते ही देखते यह संस्कृति का हिस्सा बनकर राजनीती और साहित्य पर असर डालने लगा. इसीलिए इंगलिश्तान में पहला कॉफ़ी हाउस ऑक्सफ़ोर्ड [Oxford] में 1650 में खुला था.
देखते ही देखते 17वीं और 18वीं सदी में बहुत हद तक इंग्लैंड में कॉफ़ी हाउस ने अंग्रेजी साहित्य को नया मोड़ देना शुरू करदिया. चूँकि कॉफ़ी हाउस गप्प बाज़ी के अड्डे होते थे इसलिए लेखक, कवी, वव्यंगकार के साथ साथ शाही हुकूमत के खिलाफ कानाफूसी करने वाले राजनीतिकार भी जमा होते थे. जिन बातों पर चर्चा होती थी वह राजनीती और राजनितिक भरष्टाचार के इर्दगिर्द घुमती थी. व्यंगकार एलेकज़ेनडर पोप ने वही के किस्से कहाहिंयों को उठा कर ‘रेप ऑफ़ द लॉक’ की रचना की थी. बाद में कॉफ़ी हाउस को चार्ल्स ll ने यह कहकर की “[it were]places where the disaffected met, and spread scandalous reports concerning the conduct of His Majesty and his Ministers,” इस पर पाबंदी की बात की मगर लोग वहां जुटते रहे. 1739 आते आते 551 कोफ्फ़ी होउसेज़ लन्दन में खुल गए जहाँ Tories और Whigs से जुड़े लोग, चर्च से जुड़े लोग, कलाकार, लेखक, सौदागर जुटने लगे और इस तरह साहित्य पर असर डाला जिसकी चर्चा अंग्रेजी साहित्य के इतिहास में भी है.
भारत में पहला कॉफ़ी हाउस कॉफ़ी सेस कमिटी के दुआरा बॉम्बे में 1936 में खुला था. फिर 1950 के दशक में निति बदलने के कारण कॉफ़ी हाउस बंद होने लगे तो कोम्निस्ट नेता ए के गोपालन की पहल पर कर्मचारियों ने आन्दोलन किया और लखनऊ सहित कई जगहों पर कर्मचारी कोआपरेटिव के आधार पर कॉफ़ी हाउस खुल गए जो चिंतन, चेतना, लेखन पर असर डालने लगे. इस सिलसिले में कलकत्ता के कॉलेज स्ट्रीट के प्रेसीडेंसी कालेज के सामने कॉफ़ी हाउस आज भी विचार और ज्ञान के लिए चर्चा में है.
वरिष्ट पत्रकार प्रदीप कपूर, 58, की किताब ‘लखनऊ का कॉफ़ी हाउस’ ने न केवल लखनऊ के कॉफ़ी हाउस के इतिहास को 38 पन्नों में समेटा है बल्कि उन तमाम हस्तिओं का ज़िक्र किया है जो हिंदी हार्टलैंड उत्तर प्रदेश की सामाजिक, साहित्यिक और राजनितिक जीवन से जुड़े रहे थे. उनके द्वारा देश की राजनीती को अपने इशारे पर घुमाने की कई अनकही कहानिओं की झलक भी दिखा दी है. इस कहानी के हर पात्र जिसका उन्हों ने ज़िक्र किया है को उन्हों ने नजदीक से देखा सुना और कई बार तो उन्हों ने उन्हें ही अपनी बात सुनाई.
इन हस्तियों में शामिल हैं पूर्व प्रधान मंत्री चंद्रशेखर [जिनकी पहचान यंग तुर्क के तौर भी थी], ‘’छोटे लोहिया’ के नाम से जाने जाने वाले जनेश्वर मिश्र, एच एन बहुगुणा, एन डी तिवारी, वीर बहादुर सिंह, श्रीपत मिश्र, सिब्ते राज़ी, समाजवादी नेता मधुकर दिघे, महिपाल शास्त्री, ब्रह्म्दुत्त, तात्काली महापोड़ दाऊदजी गुप्ता, जस्टिस हेदर अब्बास, इब्-ने-हसन, कई वरिष्ट पत्रकार [वह पत्रकार जिन्हों ने लखनऊ की पत्रकारिता को पहचान और नइ जुबान दी] लालजी टंडन, जुझारू कम्युनिस्ट नेता अतुल अंजन अदि थे. जिस तरह मैखाने में लोग एक हो जाते हैं उसी तरह यहाँ कोई विचारधार नहीं बल्कि भाईचारा की राजनीती होती थी. मजाक भी उसी अंदाज़ में. प्रदीप कपूर ने एक अनोखी बात लिखी है कि जिस टेबल से किसी की पहचान होती थी वही सब का बिल भी चुकता था. इस तरह की कई रोचक बातें प्रदीप कपूर ने लिखी हैं.
इसतरह लखनऊ के कॉफ़ी हाउस के किस्से और बहार की राजनीती की झलक इनकी किताब में मिलती है. गुप-बाज़ी को बिना लाफ्बाज़ी के प्रदीप कपूर ने प्रस्तुत किया है. हाँ जिस तरह देश और उत्तर प्रदेश की राजनीती और समाज का हाल बनता बिगड़ता रहा उसी तरह से इस कॉफ़ी हाउस ने अच्छे और बुरे दिन देखे. कॉफ़ी हाउस आज भी है मगर वह तड़क भड़क वाले बहु-राष्ट्रीय कॉफ़ी हाउस ‘एनीथिंग कैन हैपन ओवर ए कप ऑफ़ कॉफ़ी नौजवानों को अधिक आकर्षित करते हैं. दूसरी ओर कपूर जैसे लोग लखनऊ कॉफ़ी हाउस को बचाने की मुहीम में लगे हुए. यदि 50 के दशक से अबतक की राजनीती साहित्य और पुराने पत्रकारों छुपे चेहरों को देखना है तो ‘लखनऊ का कॉफ़ी हाउस’ देखना ज़रूरी होगा. मगर कोई यह सोच कर इस किताब को पढ़े की इस कॉफ़ी हाउस ने कौन सा आन्दोलन या साहित्य, राजनीती को कब नया मोड़ दिया तो शायद मायूसी होगी.