वक़्त और झूठ का नक़ाब
By Professor Nehal Uddin Ahmad
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पापों का घड़ा भरता है तो तख़्त पलट जाते हैं,
आज की रौनक़ देख वो मदमस्त हुए जाते हैं।
उसकी मय्यत को कंधों पे उठाए लोग खड़े हैं,
वो अब भी तख़्त-नशीन के छलावे में जिए जाते हैं।
हम पूछें तो कहते हैं यह बग़ावत है हमारी,
चुप रहें हम तो फिर ग़ुलामों में गिने जाते हैं।
जो ख़ून बहाते हैं, वो ही इन्साफ़ के मालिक हैं,
मासूम यहाँ बस हथकड़ियों में ही नज़र आते हैं।
सच बोलने वालों के लब सी दिए जाते हैं,
झूठे यहाँ अवाम के मसीहा बने जाते हैं।
हम अपनी नुक्ताचीनी पे बेवजह ही शर्माते हैं,
फिर भी झूठ का नक़ाब पहन सरताज बने जाते हैं।
दुनिया पढ़ लेती है नक़्श हमारे झूठे किरदारों का,
फिर भी आईने से आँखें चुरा मासूम बने जाते हैं।
हुकूमत के नशे में चूर, वो इंसानियत से बेख़बर,
अब अपने ही लोगों को परायों में गिनते जाते हैं।
ये वक़्त की चाल है, बदलेगा मंज़र सारा एक दिन,
जो आज मस्नद-नशीन हैं, कल सड़कों पे नज़र आते हैं।
‘नेहाल’ छलावे में रहने की सज़ा भी मिलती है,
ज़ालिम के पीछे ये सज्दों में भी झुके जाते हैं।
Prof Nehaluddin Ahmad, LL.D. Professor of Law, Sultan Sharif Ali Islamic University (UNISSA), Brunei, email: ahmadnehal@yahoo.com

















