
इक आवाज़ दे के छुप गई हर बार ज़िन्दगी,
मैं खो चुका सपनों को कितनी बार ज़िन्दगी।
इशारों इशारों में ही क्या-क्या कह गई ज़िन्दगी,
कभी हँसी, कभी ग़म, हमें परखती गई ज़िन्दगी।
कभी ख़्वाब की राहों में काँटे बिछाती गई ज़िन्दगी,
कभी काँटों को फूल बनाकर सजाती गई ज़िन्दगी।
सरहदें बनती गईं, दरिचों में छिपती गई ज़िन्दगी,
दीवारों के जंगल में ख़ुद को ढूँढ़ती गई ज़िन्दगी।
कभी दोस्ती के पर्दे में दुश्मनी निभाती गई ज़िन्दगी,
कभी मुस्कानों के पीछे साज़िशें छुपाती गई ज़िन्दगी।
कभी बच्चों की मासूम हँसी चुरा ले गई ज़िन्दगी,
कभी बेवफ़ाई का तर्ज़ उन्हें सिखा गई ज़िन्दगी।
सियासत के झूठे वादों पे मुस्कुराती गई ज़िन्दगी,
सच को दबा, अदाकारियाँ दिखाती गई ज़िन्दगी।
हर इम्तिहान के बाद इम्तिहान लेती गई ज़िन्दगी,
हर बार हमें ख़ुद को आईना दिखाती गई ज़िन्दगी।
नेहाल, ग़म की धूप में भी मुस्कुराती रही ज़िन्दगी,
हमें तो बस हर इम्तिहान पे आज़माती रही ज़िन्दगी।
—प्रोफेसर नेहाल
Prof Nehaluddin Ahmad, LL.D. Professor of Law, Sultan Sharif Ali Islamic University (UNISSA), Brunei, email: ahmadnehal@yahoo.com

















