
दिल बुझा रहता है क्यों
वो भूल गए हैं मस्जिद का रास्ता,
फिर उसे कोई मज़हब का सबक़ सिखाए क्यों?
चाक़-ए-दामन-ए-दिल को किया है रुसवा,
अब मेरी ग़ैरत को कोई ललकारेगा क्यों?
सादगी का ये मंज़र भी कम नहीं कुछ,
फिर भी हर रोज़ भरोसे का ख़ून होता है क्यों?
ख़ुश तो हो लेता हूँ छोटी सी बात पर,
उस के आने के बाद भी दिल बुझा हुआ है क्यों?
काग़ज़ी जिस्म मेरा भी भीगता है,
फिर इन बारिशों से कोई नाता रखेगा क्यों?
वो ये जानता है कि दिल में टीसें उठती हैं,
फिर भी पूछे है ये आँखों में नमी क्यों?
दर्द की सियासत को हँस के टाल दिया,
अब मैं अश्क़ों को छुपा के मुस्कराऊँ क्यों?
सच भी कहना यहाँ इक गुनाह ठहरा,
तो अदालत में झूटी क़सम उठायें क्यों?
वक़्त जो मेरी रगों में बहता था कल,
अब उसी की क़ब्र पे चराग़ कोई जलाए क्यों?
ज़िंदगी गुज़री है इतनी रफ़्तार से,
आख़िरी वक़्त मैं मुँह छुपा के निकल जाऊँ क्यों?
Prof Nehaluddin Ahmad, LL.D. Professor of Law, Sultan Sharif Ali Islamic University (UNISSA), Brunei, email: ahmadnehal@yahoo.com




















