तहसीन मुनव्वर
उर्दू अकादमी दिल्ली पिछले 25 वर्षों से दिल्ली में उर्दू नाटक महोत्सव का आयोजन करती चली आ रही है। जब इस महोत्सव की शुरुआत हुई थी तो उर्दू को केवल गद्य और पद्य तक ही सीमित रखने वालों ने काफी शोर मचाया था कि उर्दू में नाटक की कहां जगह है। इस पर उन्हें पारसी थिएटर, आगा हश्र कश्मीरी, पृथ्वी थिएटर, हबीब तनवीर से लेकर हिंदी फिल्मों तक की भाषा की याद दिलानी पड़ी थी। उस समय नाटक का मंचन कराने में आगे आगे रहे अनीस आजमी इस समय उर्दू अकादमी, दिल्ली के सैकेटरी के पद पर आसीन हैं। उन्होंने नाटकों पर कई पुस्तकें लिखी हैं और दिल्ली के रंगमंच कलाकार उनका सम्मान भी करते हैं।
इस वर्ष दिल्ली उर्दू अकादमी ने अपने 25वें नाटक उत्सव को उर्दू के बड़े कहानीकार कृष्ण चंदर पर केन्द्रित करने का निर्णय लिया था। इसके पीछे कृष्ण चंदर के चाहने वालों की उस शिकायत को भी दूर करना था जो यह कहते नहीं थकते कि उर्दू वालों ने कृष्ण चंदर के साथ इंसाफ नहीं किया। दिल्ली सरकार के संस्कृति विभाग के सहयोग से 3 अक्तूबर से 8 अक्तूबर के बीच दिल्ली के श्री राम सेंटर में आयोजित इस नाटक महोत्सव में कुल 6 नाटकों का मंचन हुआ। पहले दिन रेवती सरन शर्मा द्वारा रूपांतरित नाटक परमात्मा का मंचन हुआ। अजय मंचंदा के निर्देशन में मंचित यह नाटक इसलिए भी विशेष था कि रेवती जी एक जाने माने प्ले राइट होने के साथ-साथ कृष्ण चंदर के करीबी सम्बन्धी भी हैं।
उर्दू नाटक महोत्सव में दूसरा नाटक हलालखोर रहा जिसके बारे में विस्तृत बातचीत हम आगे करने वाले हैं। 5 अक्तूबर को परिकल्पना कल्चरल सोसाइटी की ओर से महालक्ष्मी का पुल प्रस्तुत किया गया। मंच के लिए रूपांतर तथा निर्देशन राजेश रेड्डी ने दिया था। 6 अक्तूबर को लिविंग थिएटर ने दरवाजे खोल दो का मंचन किया। कृष्ण चंदर के लिखे इस नाटक को शेख खैरुद्दीन ने निर्देशित किया था। 7 अक्तूबर को बहरूप आर्ट्स ग्रुप ने कृष्ण चंदर के लिखे को एक कलम सड़क किनारे के नाम से राजेश सिंह के निर्देशन में प्रस्तुत किया। महोत्सव के अंतिम दिन थ्री पैनी थिएटर ने हम तो मुहब्बत करेगा को कृष्ण कान्त के निर्देशन में मंचित किया।
नाटक महोत्सव में हम ने भी एक समय के बाद अपने अभिनय की परीक्षा लेने का निर्णय लिया और दूसरे दिन 4 अक्तूबर को कृष्ण चंदर की कहानी कालू भंगी (कहानी का नाम यही है इसलिए लिखना मजबूरी है) पर आधारित नाटक हलाल खोर में कालू का चरित्र निभाया। उर्दू पत्रकार डॉक्टर मुमताज आलम ने इस कहानी को नाटकीय रूपांतर में ढाला था और दिल्ली में एनएसडी से जुड़े जाने माने रंगकर्मी गोविंद सिंह यादव ने इसका डिजाइन और निर्देशन देने का काम किया। गोविंद बुनियादी रूप से मंच की तकनीक से जुड़े निर्देशक हैं इसलिए उनके नाटकों में प्रकाश का अद्भुत नजारा देखने को मिलता है। हलाल खोर में भी उन्होंने न केवल प्रकाश की सुंदर छठा बिखेरी बल्कि उन्होंने रंग मंच की अधिकतर कलाओं का सहारा लिया जिन में कठपुतली कला का उपयोग भी सराहनीय है।
हलाल खोर समाज में हाशिए पर खदेड़ दिए गए वर्ग की पीड़ा और जीवन को इस प्रकार आपके सामने लाता है कि आपको सोचना पड़ता है कि आखिर किसी के काम को लेकर उस से नफरत क्यों की जाए।
नाटक में सब से अहम् भूमिका में जाने माने फिल्म तथा टीवी कलाकार तथा अपनी बुलंद स्वर से पार्श्व स्वर के लिए प्रसिद्ध रहे विष्णु शर्मा ने कृष्ण चंदर का चरित्र इस प्रकार निभाया कि लोग उनकी आवाज के सागर में डूबे रहे। विष्णु शर्मा महाभारत में वासुदेव की भूमिका के लिए भी जाने जाते हैं।अंत में हमारा कालू का चरित्र था और हमारी और निर्देशक की कोशिश यह थी कि कालू के अभिनय से लोग शुरू से आखिर तक इतना बंध जाएं कि लोगों को साफ सफाई और छोटे काम करने वाले लोगों से प्रेम हो जाए। हम ने सभी साथी कलाकारों की सहायता से जिन में अधिकतर दिल्ली के एलटीजी रंग मंडल से सम्बंधित थे और जिन पर मीता मिश्रा ने काफी मेहनत की थी, इस भूमिका पर खरा उतरने की पूरी कोशिश की। हमारे छिले हुए घुटने और चोट खाई अंगुली इस बात की गवाह हैं कि मंचन के दौरान हम पर कालू सवार रहा और हम ने कालू के साथ इंसाफ किया।
हलाल खोर में छोटे-छोटे चरित्र में भी कलाकारों ने आत्मा का संचार किया। बकरी और गाय के चरित्र को निभाते हुए अभिषेक और आकांश ने दर्शकों से खूब वाहवाही बटोरी। यही नहीं छोटे से कीड़े का चरित्र जिसमें संवाद तक नहीं थे उस में भी शशि ने कमाल कर दिया। नाटक में संगीत व नृत्य का अनोखा संगम था। फैज अहमद फैज की कविता यह गलियों के आवारा कुत्ते का पूरा प्रस्तुतीकरण जानदार रहा जिसमें नवनीत ने कुत्ते के रोल को भली-भांति प्रस्तुत किया और एक लम्हे को मंच पर ऐसा लगा किमानो वहां कुत्तों की भीड़ जमा हो गई हो। नूरा के चरित्र में सुगन्धा हों या मां के छोटे से रोल में रचना यादव सब ही ने अपनी जबरदस्त छाप छोड़ी। यहां तक कि एक छोटे से दृश्य में खिलजी बने अखिल का प्रेम और विलाप भी काफी सराहा गया। इसी प्रकार आशिक के रोल में नवनीत और नरेश का एक दूसरे से लड़ना असरदार था। मां और बहू के चरित्र में ऋचा और नेहा भी असर अंदाज रहीं। अंशी शर्मा ने अपने बेली नृत्य के साथ ही छोटे बच्चे और जानकी का बखूबी किरदार निभाया। प्रहलाद ने परदे के पीछे और परदे के आगे दोनों जगह अपनी उपस्थिति दर्ज करानेमें सफलता पाई। दूल्हा और बख्तियार बने शंकी की आवाज जोरदार थी तो वहीं मुनीम के रोल में आए इख्तियार ने जब कालू की पिटाई आरम्भ की तो इस दृश्य पर लगातार दर्शकों की तालियां बजती रही थीं।
देखा जाए तो दर्शकों की तालियां तो नाटक को सफल कह चुकी हैं किन्तु हमारी नजर में नाटक तभी सफल कहा जा सकता है जब उसका संदेश न केवल दर्शकों के जीवन में उतरता प्रतीत हो बल्कि उनके द्वारा दूर-दूर तक जाए। जब तक हजारों लाखों कालू का जीवन नहीं बदलता तब तक हम इस कालू के नाटक को सफल कहने में संकोच ही करते रहेंगे। लेकिन दिल्ली उर्दू अकादमी की इस कोशिश को जो वह लगातार 25 वर्षों से रंग मंच पर करते आ रहे हैं सराहना होगा जिस सेन सिर्प हिंदी भाषा की बहन उर्दू जुबान नए और संवेदनशील वर्ग तक जा पा रही है बल्कि सामाजिक सरोकार से भी सीधे रूप से जुड़ती नजर आती है।
(लेखक मीडिया विश्लेषक तथा साहित्यकार हैं।)