वो आख़िरी रोटी……….
बेटे ने दो जोड़े कपड़े दिए,
और दो रोटी,
और दरवाज़ा खोल दिया —
जैसे कोई फ़र्ज़ अदा कर दिया हो।
कहा — “अब बहुत हो गया,
हमें भी ज़िंदगी जीनी है।”
मैंने कुछ नहीं कहा,
बस सर झुका लिया,
और चुपचाप चल दिया।
मैंने वो रोटी एक कुत्ते के सामने रख दी,
जिसकी आँखों में भूख थी,
पर शायद शुक्र भी।
उसने दुम हिला दी —
ऐसे जैसे कह रहा हो,
“तू अकेला नहीं है इस दुनिया में।
मैं मुस्कुरा दिया।
सालों बाद किसी ने
मेरे दिए हुए तोहफे को
बिना शिकायत के स्वीकार किया था।
हवा में ठंडक थी,
पर दिल में कोई हल्की सी गरमाहट ,
शायद उस कुत्ते की दरियादिली से आई थी।
मैंने पीछे मुड़कर नहीं देखा,
क्योंकि पीछे अब घर नहीं,
बस एक बंद दरवाज़ा था,
जिसके इस पार
एक बाप मर चुका था।
सोचता रहा —
क्या बेटे को मेरी याद आएगी?
क्या वो दरवाज़ा फिर खोलेगा,
और मुझे ढूँढ़ता हुआ आएगा?
क्या उसे याद आएगा —
कैसे मैं उसे कंधों पर बिठाकर घुमाता था,
कैसे उसकी ज़िद पर हर बार
आइसक्रीम खिलाने निकल पड़ता था,
और कैसे उसकी खाँसी की हर रात
मैं जागकर उसे सहलाता था।
किसी ने आवाज़ दी —
“कोई आपसे मिलने आया है।”
मैं भागता, गिरता,
दिल की सारी रौशनी समेटकर,
ख़्वाबों से जूझता,
दरवाज़ा खोला ।
सामने एक आवारा कुत्ता था।
खामोश आँखों में शुक्रिया,
ज़ुबान बाहर,उम्मीद की हसरत में ।
मैं मुस्कुरा दिया —
शायद पहली बार दिल संतुष्ट हुआ।
इंसान भूल गया,
पर जानवर ने इंसानियत को याद रखा।
Prof Nehaluddin Ahmad, LL.D. Professor of Law, Sultan Sharif Ali Islamic University (UNISSA), Brunei, email: ahmadnehal@yahoo.com

















