नई दिल्ली (ईएमएस)। दिल्ली की कहानी बड़ी दिलचस्प है। कई बार उजड़कर बसने वाली इस दिल्ली ने दिल्ली में हुआ 1857 का गदर भी देखा और शायरों को भी बेहद करीब से जाना। पुरानी दिल्ली गली कासिम जान उस बदलते दौर का गवाह रही है। यहीं पर उर्दू के बेहतरीन शायरों में से एक मिर्जा गालिब का गरीबखाना भी है।
गालिब उस दौर के शायर थे जब दिल्ली के दरबार में उस्ताद जौक का सिक्का चलता था। इस दौर में कई जाने-माने शायर हुए, लेकिन गालिब अपनी अलग पहचान बनाने में काफी हद तक कामयाब हुए। हालांकि उनका पूरा जीवन मुफलिसी और खुद की पहचान बनाने में खप गया। कभी पेंशन तो कभी वजीफा तो कभी किसी दूसरे काम के लिए उन्हें आगरा से लेकर कोलकाता तक कई यात्राएं की।
इनका जिक्र उनके पुराने दस्तावेजों में भी मिलता है। गालिब की एक बात बेहद खास थी। वो शेर कहते और कपड़े में गिरह लगाते जाते थे, बाद में गिरह खोलते जाते और सभी को दर्ज कर लेते थे। आज उन्हीं गालिब का 221वां जन्मदिन है।
गालिब मुफलिसी के तो मारे थे ही लेकिन उनकी मुफलिसी कभी जाम चखने और जुआ खेलने के आड़े नहीं आई। आलम यह था कि मिर्जा की जेब में जहां पैसे आए तुरंत मेरठ से शराब खरीद लाते थे। मेरठ की शराब के वो यूं मानों जैसे कायल थे। खाली प्याले और बोतलों को भी वो बमुश्किल ही घर से बाहर फिंकवाते थे।
मस्जिद की सीढि़यां चढ़ते हुए उन्हें आफत आती थी लेकिन कर्ज मांगने के लिए वह बारंबार सूतखोरों की दहलियां लांघते नहीं थकते थे। वो कहते थे कुछ लोग हैं जिनकी रोजी-रोटी उन जैसे इंसानों से ही चलती है, फिर क्यों ऐसे लोगों को क्यों बेरोजगार कर उनके पेट पर लात मारी जाए। गालिब का कहना था कि जरूरत थैले की हो तो बोरा मांगो, निराश नहीं होगे। खदु गालिब ने इस पर क्या खूब लिखा है।
गालिब के कुछ किस्से भी दिल्ली की गलियों में बेहद मशहूर थे। गालिब दरअसल उस शख्स का नाम था जो धर्म से ऊपर इंसान को समझता था। यही वजह थी कि दिवाली पर अपने माथे टीका लगवाने पर उन्हें कोई ऐतराज नहीं होता था। एक बार दिवाली पर वह अपने हिंदू दोस्त के यहां मौजूद थे तो पूजा के बाद सभी के टीका लगाया गया, लेकिन उन्हें छोड़ दिया गया। इस पर मिर्जा ने पंडित से कहा कि उन्हें भी टीका लगा दिया जाए।
उन्होंने दिवाली का प्रसाद लेकर अपने घर की तरफ चल दिए। रास्ते में उनके माथे पर लगे टीके और हाथ में मिठाई देकर मुल्ला ने ऐतरात जताते हुए कहा मिर्जा दिवाली की मिठाई खाओगे। ऊपर वाले को क्या मुंह दिखाओगे। जवाब में मिर्जा ने कहा यदि बर्फी हिंदू है तो क्या इमरती मुसलमान है।
अव्वल तो गालिब को भी काफी तरसने के बाद दबीर-उल-मुल्क और नज्म-उद-दौला का खिताब मिला था। 1850 में इस खिताब को अदा करने वाले आखिरी मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर थे। इसके बाद में उन्हे मिर्जा नोशा का भी खिताब मिला। वे शहंशाह के दरबार में एक महत्वपूर्ण दरबारी थे। जफर खुद भी शायर थे लिहाजा शायरों की कदर करनी भी उन्हें आती थी।
उन्हें बहादुर शाह जफर द्वितीय के ज्येष्ठ पुत्र राजकुमार फक्र-उद-दिन मिर्जा का शिक्षक भी नियुक्त किया गया। वे एक समय में मुगल दरबार के शाही इतिहासविद भी थे। गालिब के अब्बा और उनका परिवार ईरान से दिल्ली आया था। गालिब को फारसी की अच्छी समझ भी इसलिए ही थी। गालिब पहले फारसी में ही अपने शेर कहते थे। इसके अलावा उनका पहले तखल्लुस भी असद हुआ करता था, लेकिन बाद में उन्होंने इस बदलकर गालिब रख लिया था।
गालिब उस्ताद जौक और मियां मौमिन के जमाने के शायर थे। लेकिन उस्ताद जौक का उस वक्त न सिर्फ दिल्ली में बल्कि बादशाह के यहां भी बड़ा रुतबा कायम था। लेकिन इन दोनों की कभी नहीं बनी। हमेशा ही दोनों एक दूसरे के धुर विरोधी के रूप में ताउम्र कायम रहे। यही वजह थी कि अक्सर एक दूसरे पर कसीदे पढ़ने से भी दोनों बाज नहीं आते थे। दौर शायरों का था तो एक दूसरे से मजे लेने का जरिया भी उनकी शायरी ही हुआ करती थी।
एक बार जौक सड़क से पालकी पर जा रहे थे और मिर्जा जुआ खेल रहे थे। तभी उनका ध्यान किसी ने जौक की तरफ करवाया तो मिर्जा ने कहा बना है शाह का मुसाहिब, फिरे है इतराता। इस पर जौक खफा हो गए। लिहाजा बादशाह के सामने उन्हें नीचा दिखाने की जुगत लगाई गई। उन्हें एक रात शाही मुशाएरे में बुलाया गया और उस्ताद जौक ने मिर्जा की पक्तियों पर अपना ऐतराज दर्ज कराया।
लेकिन मिर्जा भी कहा मानने वालों में से थे। उन्होंने झट से बादशाह से कहा कि वो उनकी नई गजल का मक्ता है। इस पर बादशाह जफर ने गालिब को वो गजल पेश करने का हुक्म दिया। उन्होंने झट से एक कागज निकाला और पूरी गजल पेश कर दी। यह बात अलग थी कि वह कागज कोरा था और हकीकत ये थी कि उन्होंने जौक पर ही तंज कसते हुए चंद लाइनें कही भी थीं।
उस दौर में मिर्जा के इश्क में एक नाचने वाली जबरदस्त तरह से पागल थी। अक्सर उसकी महफिल में मिर्जा की नज्म सुनाई देती थी। आलम यह था कि कोतवाल के चलते दबाव से उस दिल्ली की गलियां ही त्यागनी पड़ी। मिर्जा ताउम्र एक बच्चे की ख्वाहिश पाले रहे। हुए तो कई लेकिन कोई जी नहीं पाया। बार-बार उनकी ख्वाहिश दम तोड़ती हुई उन्हें दिखाई देती। गालिब की मौत 15 फरवरी, 1869 को हुई थी। उन्हें निजामुद्दीन औलिया के मकबरे के पास दफनाया गया था।